प्रया ेगात्मक कला - एक विशलेषण
Journal Title: International journal of research -GRANTHAALAYAH - Year 2018, Vol 6, Issue 12
Abstract
अभिव्यंजना अथवा भावाभिव्यक्ति द्वारा सौंदर्य सृजन मनुष्य मात्र को चरम संतुष्टि प्रदान करता रहा है। फिर उसका माध्यम क ुछ भी हो अभिव्यक्ति ही कलाकार का मुख्य उद्देश्य रहता है वह अपन े उद्देश्य क े अन ुरूप माध्यम भी खोज लेता है। यह प्रक्रिया आदिमकाल से लेकर वर्त मान तक अनवरत रूप से जारी है। सर्वप्रथम मानव ने पत्थरों से शिलापट्टा ें पर आड़ी तिरछी र ेखाएँ उकेरी तत्पश्चात उसने प्रकृति प्रदत्त रंगा ें तथा जानवरों की चर्बी को माध्यम बनाया उसमें भी विविधता दर्शाने क े लिए उसने रंगों को पारदर्शी तथा अपारदर्शी रूप में उपयोग किया कहीं पूरक तथा कहीं अर्द्ध पूरक शैली का प्रयोग किया । कहीं र ेखाएँ खीची तथा कहीं हाथ से छापे लगाए कहीं कहीं विविधता के लिए मुंह में भरकर र ंग फूंका। प्राचीन काल तक आते आते कला उबड़खाबड़ शिलापट्टों से मुक्त हो चिकनी सतह पर आ गई। इस समय गुफाओं की भित्ति त ैयार करने क े लिए चूना, खड़िया, गोबर तथा बारीक बजरी का गारा जिसे अलसी क े पानी में भिगोकर फूलन े दिया जाता था। तत्पश्चात ् भित्ति पर इसकी पौन इंच मोटी तह लगाई जाती थी फिर उसपर अण्डे क े छिलक े क े बराबर मोटाई का सफेद पलस्तर का लेप चढ़ाया जाता था । इस प्रक्रिया से गुफाओ क े चटटानी दीवारों क े छिद्र भर जाते थे और दीवार चित्रण क े लिए समतल हो जाती थी उस पर वानस्पतिक तथा खनिज र ंगों को त ैयार कर उपयोग में लाया जाता था इन चित्रों को सुरक्षित रखने के लिए अंडे की सफेदी, गोंद, सर ेस, दूध आदि पदार्थ लासा क े रूप में प्रया ेग किए जाते थे। कालान्तर म ें भवनों, मन्दिरों तथा गिरजों की सपाट दीवारों पर चित्रण होने लगा । 14 वीं शती में कला दीवारों से उतर कर ताड़पत्र तथा पोथियों म ें समा गई संपूर्ण मध्यकाल में पोथी एवं पटचित्र की एक पुष्ट परंपरा प्रारंभ हुई । मिनिएचर चित्रों की रचनाएँ कागज पर की जान े लगी। कागज के बाद क ेनवस उसके साथ अन ेक प्रकार की चित्रभूमि ज ैस े प्लाई बोर्ड, मेसोनाईट बोर्ड, लकड़ी क े पाटे तथा जूट इत्यादि पर भी ट ेम्परा तथा जल र ंगो से प्रयोग किए गए। चित्रों की मौलिकता का स्थान नवीनता ने ले लिया क ुछ नया करने की चाह म ें फलक के साथ साथ माध्यम भी परिवर्तित हो गए। र ंगों का स्थान वस्त ुओं न े ले लिया तथा त ैयार वस्त ुएँ कलात्मक मानकर स्थापित की गई। नवीनता की खोज की दौड़ में कलाकारों न े माध्यम को पीछे छोड़ दिया तथा वह स्वयं ही कलाकृति बन खडा होन े को उद्यत हो गया।
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